वाराणसी: देश की आजादी में न जाने कितनों ने अपने प्राणों की आहुति दीं थी. आजाद भारत में सांस लेने के लिए हमारी युवा पीढ़ी संघर्ष न करे इस वजह से हमारे पूर्वजों ने लंबा संघर्ष करके देश को आजाद कराया. 15 अगस्त को देश आजादी का 78 वां वर्ष सेलिब्रेट करेगा. इस मौके पर हम आपको वाराणसी के उन मकानों की कहानी सुनाने जा रहे हैं जहां आजादी की अलख जगा कर आजादी के मतवालों ने संघर्ष किया था.
वाराणसी का मणिकर्णिका घाट इलाका उससे सटा तमाम मोहल्ला क्रांतिकारियों के मोहल्ले के रूप में जाना जाता था. इसी मोहल्ले के एक मकान में रहते थे पुरुषोत्तम दास खत्री उर्फ काके बाबू. अपने घर के इकलौते बेटे काके बाबू काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए अंग्रेजी हुकूमत की नींव को हिलाकर अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़े थे.
यह आंदोलन गांधी जी के प्रयासों से जब शुरू हुआ तो काके बाबू के अंदर देश की आजादी की लड़ाई में संघर्ष करने का ऐसा जज्बा जागा की उन्होंने और भी युवाओं को इससे जोड़ना शुरू कर दिया.
उनके बेटे वासुदेव ओबेरॉय बताते हैं कि पिताजी उस समय सेंट्रल बॉडी यूनियन के प्रेसिडेंट हुआ करते थे. पहले अलग-अलग चुनाव यूनिवर्सिटीज में नहीं होते थे. एक इलेक्शन ही होता था और उस वक्त पिताजी प्रेसिडेंट के रूप में जुड़े थे, जबकि उनके महामंत्री के तौर पर प्रभु नारायण सिंह थे.
उनके साथ पढ़ने वालों की लिस्ट में जेपी समेत कई बड़े नाम भी शामिल थे. यह लोग बीएचयू में संघर्ष करते हुए 1942 में इस शपथ को दिलवाने का काम कर रहे थे, जो रावी के तट पर आजादी की शपथ के तौर पर पंडित जवाहरलाल नेहरू बाकी लोगों को दिलवा रहे थे.
बीएचयू को पहले आजाद करवाकर वहां पर तिरंगा झंडा फहराने से लेकर गिरफ्तारी देने में पिताजी का योगदान था. घर के इकलौते बेटे होने की वजह से उन्हें हर तरह की स्वतंत्रता दी गई थी. जिसके कारण वह घर को ही क्रांतिकारी का अड्डा बना चुके थे. जब अंग्रेजों से बचने के लिए क्रांतिकारी इधर-उधर भागते थे तो अक्सर रात गुजारने के लिए इसी मकान में पहुंचते थे.
अपने संघर्षों और फरारी के वक्त चंद्रशेखर आजाद ने भी एक रात इसी मकान के नीचे भूसे वाली कोठरी में गुजारी थी और फिर घर के बगल में ही गंगा तट पर खड़ी नौका से बैठकर चंद्रशेखर आजाद भाग निकले थे. इसके अलावा गरम दल नरम दल के तमाम नेता एक साथ यहां पर इकट्ठा होते थे चर्चाएं होती थी और क्रांति की मसाल को जलाए रखने के लिए क्या प्लानिंग करनी है. इस पर भी मंथन होता था.
वासुदेव बताते हैं कि एक बार पिताजी के द्वारा लिखी गई भारत में अंग्रेजी राज किताब को अपने ही पब्लिकेशन जनवाणी में उन्होंने छापा था. जिसे अंग्रेजों ने बैन कर दिया था. उस वक्त उस किताब की लगभग 1000 प्रतियां घर में पड़ी थीं. जिसे जब्त करने के लिए अंग्रेजी पुलिस वाले देर रात यहां पहुंचे थे.
उस दौरान पिताजी घर के बगल वाली दूसरी छत पर कूद कर सामने वाले कमरे में बैठकर सब कुछ देख रहे थे और पुलिस ने छापेमारी की तो घर के नौकर विश्वनाथ ने सारा सामान घर के एक तहखाने में डालकर छुपा दिया. उसमें वह किताबें भी मौजूद थी.
अंग्रेजों ने छापा मारा लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला और वह खाली हाथ लौट गए. घर में तमाम ऐसे तहखाने थे जिसमें लोग छिपते भी थे और सामानों को भी छुपाया जाता था.
वासुदेव बताते हैं कि बनारस के पुराने मोहल्ले के इन घरों में क्रांति की मसाल कई सालों तक जली. हर घर का युवा इस आंदोलन से जुड़ा रहता था और पिताजी के साथ मिलकर तमाम क्रांतिकारी इन मोहल्ले में लोगों को जगाने के लिए हाथ से छपा हुआ रणभेरी और रण लंका अखबार बांटने के लिए निकलते थे.
1936 में जब इकलौते क्रांतिकारी आज अखबार का पब्लिकेशन रोका गया तो, बाबू विष्णु राव पराड़कर जी ने उस वक्त छोटी-छोटी मेड इन लंदन हैंड प्रिंट मशीनों के जरिए एक-एक दो-दो पाने के अखबारों का पब्लिकेशन शुरू किया.
हाथों से लिखकर स्टैंसिल्स के जरिए इन अखबारों को छापा जाता था और सब्जी मंडी से लेकर भीड़भाड़ वाले इलाकों में इन्हें वितरित कर दिया जाता था. जिसमें तमाम क्रांतिकारियों से जुड़ी खबरें हुआ करती थीं. आंदोलन की जानकारी होती थी और कब कहां पर क्या कार्यक्रम होने वाला है.
इसकी सूचना भी दी जाती थी. इस तरह से इस आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने में उसे वक्त के युवाओं ने बड़ी भूमिका निभाई थी. पुराने पुराने मकान में क्रांति की अलख जलती थी और किसी को पता भी नहीं चलता था इस तरह से बनारस के पुराने मोहल्ले में लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को आगे बढ़ाया था.